वॉशिंगटन/नई दिल्ली: दुनिया की आर्थिक महाशक्ति अमेरिका अपने कर्जे चुकाने में नाकाम हो जाए तो क्या होगा? अगर वह अपने कर्मचारियों को सैलरी ही ना दे पाए तो क्या होगा? दुनिया भर में इन दिनों यही अनुमान लगाया जा रहा है। शक जताया जा रहा है कि अमेरिका इस हालत के करीब हो सकता है। ये दिन आया तो कुछ नतीजों की कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि अमेरिका ने अभी तक डिफॉल्ट किया नहीं है। फिर भी सवाल उठ रहे हैं कि अमेरिका क्या किसी बड़े संकट में फंसने जा रहा है?
सबसे पहले हम समझें कि किसी देश की इकॉनमी चलती कैसे है। इसे अपने घर की तरह देखें, जहां कमाई है तो खर्च भी। देश की कमाई जहां टैक्स से होती है, वहीं खर्चे सैलरी और सोशल स्कीमों पर होते हैं। ज्यादातर देशों में खर्च ज्यादा है, जबकि कमाई कम, इसलिए इकॉनमी घाटे में चलती है। अगर आपके घर में भी यही हो तो आप क्या करेंगे? कर्ज लेना पड़ेगा।
कर्ज किस हद तक
अमेरिका 31.4 लाख करोड़ डॉलर से ज्यादा का कर्ज नहीं ले सकता। उसने खुद यह सीमा तय कर रखी है। पहले विश्व युद्ध में अमेरिका यह समझ गया कि कर्ज आने वाली पीढ़ियों के लिए बोझ साबित होगा। इसलिए उसने सीमा तय की, जिसे संसद की सहमति के बिना नहीं बढ़ाया जा सकेगा। अमेरिका का कर्ज मौजूदा सीमा तक 19 जनवरी को ही पहुंच गया था। इसके बाद से अकाउंटिंग में इधर-उधर करके काम चलाया जा रहा है। अब पुराने कर्जे अदा करने के लिए नया कर्ज लेना है।
उपाय क्या है
1960 के बाद से लिमिट को 78 बार तोड़ने की कोशिश की गई। कभी इसे बढ़ा दिया गया, कभी इसे विस्तार दे दिया गया, कभी लिमिट की परिभाषा बदल दी गई। नतीजा ये है कि 1917 से कर्ज की सीमा बढ़ते बढ़ते अब 31.4 लाख करोड़ डॉलर हो गई। फिलहाल सरकार को टैक्स तो मिलता रहेगा, लेकिन इससे काम नहीं चलेगा। मौजूदा जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए और कर्ज लेना होगा।
कितनी मोहलत मिलेगी
अमेरिकी वित्त मंत्रालय ने हाल में चेताया था कि नकदी पहली जून तक खत्म होने के आसार हैं। हालांकि यह अनुमान ही है। इसमें थोड़ा आगे-पीछे हो सकता है। इससे पहले कर्ज की सीमा को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिका के राजनीतिक दलों को सहमत होना पड़ेगा। पुराना कर्ज चुकाने में सरकार नाकाम रही तो देश डिफॉल्ट कर जाएगा। अपने कर्मचारियों को सैलरी नहीं दे सकेगा। सोशल स्कीमों पर खर्च बंद हो जाएगा। दूसरी जिम्मेदारियां थम जाएंगी।
दल क्या कह रहे
अमेरिका में दो प्रमुख दल हैं- डेमोक्रेट और रिपब्लिकन। दोनों दलों के नेताओं में बातचीत चल रही है, लेकिन कई सवालों पर मतभेद कायम दिखे। रिपब्लिकन चाहते हैं कि सरकार अपने कई खर्चों में कटौती करे। अमेरिका में अगले साल राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं, इसलिए डेमोक्रेट राष्ट्रपति जो बाइडन खर्चों में कटौती करके अलोकप्रिय नहीं होना चाहते। डेमोक्रेट्स को लगता है कि पब्लिक प्रेशर को देखते हुए रिपब्लिकन ज्यादा दबाव नहीं बना पाएंगे।
क्या पहले भी ऐसा हुआ
कर्ज में डिफॉल्ट का मुद्दा अमेरिका में अब राजनीतिक हथियार की शक्ल अख्तियार कर चुका है। विपक्ष सहमति से पहले दूसरी कानूनी रियायतों की मांग करता है। सत्ता पक्ष अलग राह पर होता है। 2011 में भी इस तरह की तनातनी हुई थी। डिफॉल्ट की तारीख जब महज दो दिन रह गई, तब जाकर दोनों दलों में डील हो सकी थी। उस वक्त ओबामा सरकार में थे और खर्चे घटाने पर सहमत हो गए। इसके बावजूद स्टॉक मार्केट हिल गया था और पहली बार अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग गिर गई।
क्या सुलह हो सकेगी
फिलहाल यही माना जा रहा है कि थोड़ी देर भले हो जाए, लेकिन अमेरिका के नेता अपने देश को डिफॉल्ट करने की नौबत नहीं आने देंगे। हालात की गंभीरता को भांपते हुए ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपनी अहम विदेश यात्रा टालने का फैसला किया। उन्होंने बातचीत को लेकर उम्मीद जताई है। सबको पता है कि अगर डिफॉल्ट हुआ तो अमेरिका की सुपरपावर वाली हैसियत को चोट पहुंचेगी। पूरा देश मंदी के चक्र में बुरी तरह घिर सकता है। 80 लाख अमेरिकी नौकरी खो देंगे।
भारत पर क्या असर
हमारा देश भी इससे प्रभावित हो सकता है। इसकी वजह ये है कि अमेरिका में डिमांड घटने पर निर्यात प्रभावित होगा। इससे हमारे देश की कंपनियों पर असर पड़ेगा। भारत की सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री पहले ही अमेरिका में मांग घटने से मुश्किल वक्त का सामना कर रही है। दुनिया में बहुत बड़े पैमाने पर कारोबार डॉलर में होता है और दुनिया के कई देशों में डॉलर का रिजर्व रखा जाता है। अमेरिका कर्ज नहीं चुका पाता तो डॉलर की साख घटेगी। अमेरिका का केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में बढ़ोतरी पर मजबूर होगा। नतीजतन भारत में भी ब्याज दर बढ़ेगी।