चंडीगढ़ (TJP) – केंद्र सरकार ने छोटी-छोटी रोजमर्रा की बेहद आवश्यक वस्तुओं पर पांच फीसदी का जीएसटी लगाकर करोड़ों लोगों की नाराजगी मोल ले ली है, जबकि इस मद से उसे केवल 15 हजार करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त होने का अनुमान है। जबकि सरकार चाहती तो केवल पुराने कॉर्पोरेट टैक्स को वापस लाकर ही 1.60 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई कर सकती थी। यह पांच फीसदी जीएसटी की तुलना में लगभग 10 गुना ज्यादा कर संग्रह होता और इससे बेहद छोटा वर्ग प्रभावित होता। जबकि आटा, दाल, चावल, पेंसिल, नक्शे, बल्ब जैसी चीजों पर टैक्स लगाकर उसने पूरे देश की सबसे गरीब आबादी पर टैक्स की मार पहुंचाई है। बड़ा प्रश्न है कि सरकार ने आसान रास्ते से ज्यादा टैक्स वसूलने की तुलना में करोड़ों लोगों को टैक्स का झटका देना सही क्यों समझा? इस समय देश की शीर्ष कंपनियों पर लगने वाला कॉर्पोरेट टैक्स लगभग 25.17 फीसदी है। इसमें विभिन्न सेस सरचार्ज भी शामिल हैं। कोरोना काल के पहले यही कॉर्पोरेट टैक्स 34.94 फीसदी हुआ करता था। यानी कॉर्पोरेट टैक्स में लगभग 9.77 फीसदी की कमी की गई है। जबकि नई कंपनियों पर लगने वाला कॉर्पोरेट टैक्स इससे भी कम केवल 17.01 फीसदी है। पहले यही टैक्स लगभग 29.12 फीसदी हुआ करता था। आर्थिक विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि सरकार पुराने कॉर्पोरेट टैक्स की वापसी कर देती, तो सरकार को लगभग 1.60 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त कमाई हो सकती थी।
कॉर्पोरेट टैक्स आयकर के लगभग बराबर हुआ
वर्ष 2021-22 के लिए संशोधित प्रत्यक्ष कर अनुमान 12.5 लाख करोड़ रुपये रहा था, जबकि वर्तमान वित्त वर्ष 2022-23 के लिए प्रत्यक्ष कर 14.20 लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान है। इसमें कॉर्पोरेट टैक्स 7.20 लाख करोड़ रुपये और व्यक्तिगत आय कर के माध्यम से प्राप्त 7.0 लाख करोड़ रुपये हो सकता है। यानी वर्तमान वित्त वर्ष में कॉर्पोरेट टैक्स और व्यक्तिगत आयकर टैक्स लगभग बराबर होने का अनुमान है।
कॉर्पोरेट टैक्स में छूट क्यों
दरअसल, कोरोना काल में देश की अर्थव्यवस्था की कमर टूट गई थी। सरकार चाहती थी कि ज्यादा से ज्यादा निवेश हो जिससे अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटे और लोगों को रोजगार मिले। इसके लिए सरकार ने कॉर्पोरेट टैक्स दरों में बड़ी कमी की। सरकार का अनुमान था कि जब धनी लोगों की जेब में ज्यादा पैसा होगा तो वे अतिरिक्त पैसा बैंकों में न रखकर कहीं निवेश करेंगे और इससे अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। लेकिन, व्यवहार में यह ठीक उलटा हुआ। कॉर्पोरेट टैक्स में कमी से अमीर वर्ग को खूब लाभ हुआ और उन्होंने खूब टैक्स में बचत की। लेकिन इस बचत से प्राप्त पैसा उन्होंने निवेश में नहीं लगाया। इसका बड़ा कारण था कि बाजार में मांग नहीं थी। आर्थिक विशेषज्ञ अजय शंकर ने अमर उजाला को बताया कि कोई भी निवेशक बाजार में पैसा तब लगाता है, जब उसे यह पता होता है कि उसके द्वारा पैदा किया गया उत्पाद बाजार में बिक जाएगा। लेकिन कोरोना से ध्वस्त अर्थव्यवस्था से बाजार में कोई मांग नहीं थी। अमीर वर्ग को लग रहा था कि वे जो कुछ भी निर्माण करेंगे, वह बिक नहीं सकता। लिहाजा उन्होंने उस बचत के पैसे का निवेश नहीं किया। दरअसल, यह सरकार का गलत फैसला था। क्योंकि जब बाजार में मांग होती है तो लोग उस सेक्टर में पैसा लगाते हैं। इसके लिए पैसे की कभी कोई कमी नहीं होती। क्योंकि इस परिस्थिति में उन्हें पैसा बैंक से लेकर घरेलू बाजार या विदेशी बाजार से मिल जाता है। जबकि बाजार में मांग न होने पर कोई उत्पादन नहीं करना चाहता क्योंकि उसे पता होता है कि उसका पैसा फंस जाएगा। इस अनुभव से सीख लेते हुए सरकार यह कॉर्पोरेट टैक्स में दी गई छूट वापस लेकर लगभग 1.60 लाख करोड़ रुपये की कमाई कर सकती थी। इससे वह गरीब वर्ग पर टैक्स की मार देने से बच सकती थी।
लेकिन क्यों लगाया टैक्स
दरअसल, देश में अभी भी प्रत्यक्ष कर देने वाला वर्ग बहुत सीमित है। अरूण जेटली ने एक बार कहा था कि इस देश में पांच फीसदी लोग 95 फीसदी टैक्स देते हैं, जबकि 95 प्रतिशत लोग अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से केवल पांच फीसदी का टैक्स देते हैं। सरकार इस दूसरे बड़े वर्ग को अप्रत्यक्ष टैक्स करों के माध्यम से टैक्स के दायरे में लाना चाहती है। आज यह टैक्स दर बहुत कम अवश्य है, लेकिन इससे टैक्स के आधार वर्ग में बढ़ोतरी होने का अनुमान है क्योंकि इससे देश का हर उपभोक्ता इसके दायरे में आ जाएगा।
सरकार ने कर रहित आय की सीमा 2.50 लाख रुपये से बढ़ाकर पांच लाख रुपये तक कर दी। इससे भी करदाताओं की संख्या में भारी कमी आई। इससे प्रत्यक्ष कर की मात्रा में भी कमी आई, जबकि अब इस पांच फीसदी टैक्स के माध्यम से वही टैक्स दूसरे तरीके से सभी करदाताओं से लिए जाने की योजना बनाई गई है।